Monday, January 4, 2010

04-01-2010 by राजीव रंजन

हैलो देव-दीप,
हर आदमी अपने तरह से जीना चाहता है। अपने मन का करना चाहता है। आजादी महत्वपूर्ण है, बशर्ते जीया जाए तो अपनी शर्तों पर। आज देश में लड़का और लड़की सभी को समान दर्जा प्राप्त है। किसी तरह का भेदभाव या गलत बर्ताव कानूनन अपराध माना जाता है। लेकिन यह केवल संवैधानिक ताम-झाम है। भारत का सामाजिक परिवेश आज भी पुरानी ख्यालातों वाला है। लड़कियों के लिए आजादी का मतलब घर की चारदिवारी और उसके आस-पास का सीमित दायरा भर है। पुरुष मानसिकता स्त्री समाज पर आज भी हावी है। उनकी इच्छाएं और सपने किसी और के हाथों में कैद है। जरा सोचों, क्या तुम्हारे पापा कसूरवार नहीं है। हां हैं, क्योंकि उन्होंने भी तुम्हारी मम्मी के साथ बुरा सलूक किया है। मम्मी से पूछो कि अगर वह बंधन-मुक्त होती तो वह वहीं की वहीं टिकी रहती , जहां वह पिछले कई सालों से हैं। क्या वो नहीं चाहती की वह अपनी पहचान खुद के बूते बनाये। अपनी योग्यता के हिसाब से कामयाबी का सेहरा बांधे। अगर हां, तो फिर जबरन एक घेरे में बांध कर रखने वाला तुम्हारा पिता क्या तुम्हारी मां का भावनात्मक और मानसिक शोषण नहीं कर रहा। शारीरिक शोषण की तो बात ही मत करो, इसे तो हर मर्द अपनी पुश्तैनी जागीर समझता है।
देखो, देव-दीप। बात सिर्फ तुम्हारी मां की नहीं है। इस देश में ही नहीं पूरे विश्व में ऐसी महिलाओं की तादाद सबसे अधिक है, जो औरों के इशारे पर हंसती-मुस्कुराती हैं। औरों के कहे अनुसार पग बढ़ाती हैं और किसी के इंकार या मनाही पर फौरन अपना पैर पीछे खींच लेती हैं। अगर वह ऐसा न करें तो सामाजिक समन्वय का मूल जो पारिवारिक संबंध के मजुबत डोर से खाद-पानी पाता है। पारस्परिक रिश्ते की बुनियाद तले एकीकृत राष्ट्र की संरचना खड़ा करता है। वह अगले ही क्षण विरोध और अवरोध के खींचतान में भरभरा कर गिर जाएगा।
तो प्रश्न यह है कि इस डर और भय की स्थिति में सुरक्षा का जिम्मा एक स्त्री ही क्यों ले? वही क्यों लकीर का फकीर पीटने को मजबूर की जाए। होना तो यह चाहिए कि समाज का तथाकथित शक्तिशाली तबका पुरुष दोहरे भार को वहन करे। वह अपनी आजादी में कटौती करे और बचत का समय औरतों को अतिरिक्त रूप से प्रदान करे। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता न! तुम्हारे बाप को जब चाय की तलब महसूस होगी, तो बनाएगी मम्मी ही। जनाब ने आठ घंटे आॅफिस में क्या बिता लिया, शेड्युल समाप्त। मम्मी के लिए तो चैबीसों घंटे ड्युटि में रहना अनिवार्य है।
दरअसल, यह सब मैं तुमसे इसलिए कह रहा हंू कि ये सब चीजें जिसे हम सामान्य मान छोड़ देते हैं, या फिर नजरअंदाज कर देते हैं। वह हमारी मनोवृति में एक प्रकार की विकृति को जन्म देते हैं। मेरी मां हो या तुम्हारी मम्मी। सभी रिश्तों को बाद में निभाते हैं, सर्वप्रथम भोगते तो एक स्त्री के रूप में ही हैं। कई बार बच्चा जन्मते समय कराह और पीड़ा सहन करती स्त्री काल के गाल में समा जाती है। यह देखते हुए भी एक स्त्री के लिए मां बनना अनिवार्य है। ऐसी बाध्यता सिर्फ इसलिए है कि दुनिया में वंश-वृद्धि का ठीका स्त्रियों के पास है। इस मामले में पुरुष की भूमिका नहीं। लेकिन जन्म लिए बच्चे पर अधिकार कौन जताएगा, तो पिता। बच्चे पर प्यार और दुलार लुटाएगी मां और श्रेय लेगा तो पिता। देव-दीप, समाज में कई चीजें ऐसी हैं, जो पुरुष समाज की मुखालफत करने के लिए स्पेस प्रदान करती हैं। कई कमजोरियां स्त्रियों में भी है, जिसे एक स्त्री अपने खिलाफ ही मारक हथियार के रूप में प्रयोग कर रही हैं। उसमें से एक है, हर स्त्री का स्वयं को अधूरा या खाली महसूस करना। वह समझती हैं की पुरुषों के क्षत्रछाया में रहकर ही सुकून और इंतमिनान की जिंदगी जीया जा सकता है। आदम जात के बगैर जीवन जीने के कोई मायने नहीं। असल में इस मानसिकता का बीजारोपण हमारी ही सभ्यता-संस्कृति, शास्त्र और पुराणों ने किया है। उसकी व्याख्या में स्त्री श्रेष्ठतर है और पुरुष उसकी श्रेष्ठता का मानक तय करने वाला। चलो..., आज की बात यही ख़त्म।

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