Friday, January 1, 2010

01-01-2010 by राजीव रंजन

प्रिय राजाबाबा,
मैं हर रोज एक पन्ना तुम्हारे नाम से लिखूंगा। ताकि तुम अपने लिए इस ब्लाॅग-तकनीक में कुछ ऐसा पा सको, जिसे तुम्हारे पापा ने अपने समय की दुनिया से सीखा-परखा है। कोई तकनीक आदमी से बुद्धिमान होता है। यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि यह यांत्रिक उपज आदमी की ही देन है। स्वविवेक और अनुभव से पाये ज्ञान आदमी के भीतर ऐसी क्षमता और दक्षता विकसित कर देते हैं कि वह अपने शोध, अनुसंधान और प्रयोग द्वारा अनूठी अविष्कार कर डालता है। यह सब तुम समझ जाओगे धीरे-धीरे। अभी तो तुम्हारी आवाज की तुतलाहट भी नहीं बदली है साफ बोली में। खुशनसीब है तुम्हारी मां जो तुम्हें अपनी आंखों के आगे सयाना होते देख रही है। मैं कहां तुम्हारे उन कारामातों को देख पाता हंू जिसकी चश्मदीद गवाह हैं-तुम्हारे दादा-दादी और मम्मी।
राजाबाबा, दादाजी तुम पर जान वारते हैं। कितना लगाव है उन्हें तुमसे। यह प्रगाढ़ता कभी-कभी मुझे भी शर्मिंदा कर देती है। रात को तुम्हारे लिए कटोरी, चम्मच, पानी का पूरा इंतजाम। उन्हें पता है कि तुम्हारी कब-कौन सी डिमांड होगी। खाशकर अहले सुबह पानी में गोत कर बिस्कुट खाना और खा कर फिर से सो जाना, यह तो हर रात की बात है। वो हर रात तुम्हारे साथ सोते हैं, तुम्हारे एक इशारे पर उठते हैं और फिर तुम्हारी ही तरह दुबारा सो जाते हैं। उन्हें अच्छे तरीके से पता है कि तुम कहीं किसी और के गोद में सो ही नहीं सकते सिवाय उनके?
बेटे, ऐसा सुख-आनंद पाना सब के बस की बात नहीं। तुम्हें नहीं पता कि देश में अकेले तुम्ही दादा के पोते या किसी बाप के बेटे नहीं हो। ऐसे अनगिनत बच्चे हैं, जिन्हें ढंग से खाना नसीब नहीं। पैंट-शर्ट और तुम्हारे जैसा ‘गुड डे’ बिस्कुट कितने लोगों को मिल पाता है। यह तुम क्या जानो? पर तुम्हारा पापा तो पत्रकार हैं। तथ्य, सूचना और आंकड़ों की दुनिया में रहते हैं, मालूम है-जन्नत की असली हकीकत। सचमुच, भाग्यशाली हो तुम। जो इतने नाज और अरमान से पल रहे हो। मौज के साथ पढ़ रहे हो। जो जी में आता है अपनी तबीयत के हिसाब से कर ले रहे हो। अन्यथा देश के गरीब बच्चे जो अभाव में गुजर-बसर कर रहे हैं। असहाय और अनाथ बन मारे-मारे फिर रहे हैं। उनकी कोई परवाह करने वाला नहीं। तुम्हारे दादाजी की तरह ख्याल रखने वाला कोई दादाजी नहीं। सोचो, कितने अभागे हैं वो और कितने भाग्यशाली हो तुम? बेटा, आगे के समय में बड़ा हो कर तुम्हें इसी फर्क को पाटना है।
तुम इस बात को बड़े हो कर समझ जाओगे कि दुनिया जिस तेजी से बदल रही है और लोग जिस बेहिसाब तरीके से बदहवाश भाग रहे हैं। उसमें कई चीजें पीछे छूट रही है। रिश्ते दरक रहे हैं। परिवार की कसावट और बुनावट ढिली पड़ रही है। आलीशान बहुमंजिली इमारत बुनियाद से लेकर हर एक इकाई और जोड़ पर पक्का और बेजोड़ है। पर उसे बनाने वाला बेहद कमजोर। क्योंकि अब उसके सोचने के मायने बदल गए हैं। मूल्य और आदर्श किताबी बातें हो गई हैं। ‘ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है’ या फिर ‘सत्यमेव जयते’ किताबों में नैतिक पाठ के रूप में जरूर हैं, पर वह हमारे आचरण में नहीं। हम औरों की जीवनशैली या जीवन-संस्कृति को अपना कहने में जुटे हैं। हमारा मोह और आकर्षण उसी ओर ज्यादा है।
बेटे, स्वतंत्रता और स्वछंदता के अर्थं अलग-अलग हैं। पर अब एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। हम स्वतंत्रता की ओट में स्वछंदता का मकड़जाल बुन रहे हैं। अपने ही हाथों अपने समाज की संरचना और उसके नैतिक मापदंड को ध्वस्त कर रहे हैं। अपना सर्वस्व खो कर भी सर उठा कर ‘जयगान’ करना आज के इंसानी नस्ल की फितरत बन चुकी है। तुम्हें इन चीजों में फर्क करना सीखना होगा, क्योंकि तुम एक सांस्कारिक जीवन तले अंकुरित हो रहे हो। एक पाक-साफ माहौल में बड़े हो रहे हो, अतः अपनी दृष्टि में उत्साह और उल्लास की ठाट रखना। सच से आंख मिला पाने की हौसला रखना तथा अपने बूते सच को सच और झूठ को झूठ कहने की हिम्मत।
हम भारत के लोग इतिहास खूब बांचते हैं। स्वयं को भारतीय संस्कृति का वाहक मानते हैं। यह ढिंढोरा भी पिटते हैं कि सारे जग में ‘वसुधैव कुटूम्बकम्’ का जागरण करने वाला राष्ट्र भारत ही है। ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ जैसी श्रेष्ठतर परिकल्पना भारत की ही है। यहां रिश्तों में दुलार और अपनापन कूट-कूट कर भरा है। दरअसल, यह सबकुछ सच होते हुए भी सच यही भर नहीं है। चलो, फिर अगले दिन।
तुम्हारा पापा.....राज।

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